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बच्चे अब क्या सीख रहे हैं?

मेरे बोल
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कुछ वर्ष पूर्व तक जब बच्चे स्कूल जाते थे तो अधिकतर माँ-बाप का यह उद्देश्य होता था की बच्चा पढ़-लिखकर अच्छा आदमी बने.समाज में सम्मान प्राप्त करे और एक अच्छा नागरिक बनकर अपने परिवार का पालन-पोषण करे. अब हमारी सोच में काफी फर्क आ गया है कि बच्चा चाहे जैसे पढ़े-लिखे, पढ़ -लिखकर पैसा कमाए और पैसा कमाए . पैसे से ही सब कुछ हासिल किया जा सकता है. अधिकतर माँ-बाप खुद भी पैसे कमाने या उसके ही चिंतन में लगे रहते हैं क्योंकि आज पैसा बहुत महत्वपूर्ण हो गया है चाहे वह किसी भी तरीके से अर्जित किया जाए. जिसके पास जितना पैसा है वह उससे और अधिक कमाने की होड़ में लगा हुआ है. पैसे की सर्वोच्चता की यही शिक्षा हम अपनी अगली पीढ़ी को भी दे रहे हैं. बच्चे भी यही समझ इस समाज और अपने माँ-बाप से ले रहे हैं कि पैसा बनाना है चाहे कैसे भी हो.
माँ-बाप के पास बच्चों के लिए समय नहीं है. वे कमा रहे हैं या गवां रहे हैं लेकिन अपने आप में ही व्यस्त हैं और मस्त हैं. संयुक्त परिवारों में कुछ तो अंकुश होता था अब वो भी नहीं है. बच्चों का अधिकतर समय स्कूली पढाई, टी.वी.,मोबाइल और कम्प्यूटर के साथ ही व्यतीत होता है. माना कि बच्चे बहुत कुछ सीख रहे हैं पर वो सब भी सीख रहे हैं, जिसको सीखने के लिए उनकी उम्र काफी कम है. बच्चे ज्यादा कमरों में ही बंद हैं. गंभीरता से सोचिये कितने बच्चे नियमित रूप से आपस में खेलने के लिए समय निकाल पाते हैं. उनके पास खेलने के लिए समय नहीं है, खेलने की जगह ही नहीं है और कुछ के पास तो बच्चों को खेलने देने की सोच ही नहीं है. ये टी.वी.,मोबाइल और कम्प्यूटर से सीखा हुआ अधकचरा ज्ञान उनकी सोच को प्रभावित कर रहा है. रही-सही कसर हमारी दिखावे की आधुनिक जीवन शैली ने पूरी कर दी है जहाँ हम कई काम सिर्फ दिखावे के लिए ही करते हैं. दिखावे में कई गलत बातें बच्चों के दिमाग में जबरदस्ती ठूंसने का प्रयास होता है ,जिसे वह सच्चाई मानकर अंगीकार कर लेता है. बच्चे को यही शिक्षा मिल रही है कि सिर्फ अपने और अपने परिवार से मतलब रखो. बच्चों को समाज और नैतिक मूल्यों का अहसास काफी कम है.
स्कूलों कि दशा भी काफी चिंताजनक है. सरकारी स्कूलों में कौन अपने बच्चे पढाना चाहता है? हालत बहुत ख़राब है,कोई स्तर नहीं रख छोड़ा है. सच पूछिए तो ‘मिड डे मील्स’ योजना के कारण ही वहां पर कुछ बच्चे हैं या कोई और स्कूल नहीं है तो मजबूरी में गरीब बच्चे वहां पर हैं. प्राइवेट स्कूलों में किताबी शिक्षा और किताबों का बोझ तो बहुत ज्यादा है पर नैतिक शिक्षा न के बराबर है. वे क्या नैतिक शिक्षा देने का प्रयास करेंगे जो सिर्फ पैसा कमाने के लिए ही स्कूल खोलते हैं? बच्चों के लिए स्कूल एक बोझ बना दिया गया है जहाँ सिर्फ ‘क्लास वर्क’ और ‘होम वर्क’ दिया जाता है. उनके लिए केवल इस ‘वर्क’ को निपटाना ही स्कूलों का उद्देश्य है. आज बच्चे इन शिक्षा की दुकानों से किताबी ज्ञान के आलावा कुछ नहीं सीख पा रहे हैं. एक और दुखदाई स्थिति तब है जब किसी व्यक्ति को कोई और नौकरी न मिले और वह मजबूरी में अध्यापक बन जाए. मजबूरी के इस अध्यापक से वह अध्यापक बहुत अच्छा होता जो शिक्षा और समाज की सेवा के लिए मन से अध्यापन को अपनाता.
यही कारण है कि आज बच्चे अपने माता-पिता, अध्यापक और बड़ों का सम्मान नहीं कर रहे हैं. अभी कुछ दिन पूर्व एक कक्षा ९ के विद्यार्थी ने चाकू से अपनी अध्यापिका की हत्या कर दी. एक बच्चा और हत्या जैसा जघन्य अपराध वो भी सिर्फ इसलिए कि उसकी कापी पर नोट लिख दिया. बच्चे जिद्दी हो रहे हैं, किसी की नहीं सुन रहे हैं. छोटे-छोटे बच्चे गाड़ियाँ चला रहे हैं. न नियमों कि परवाह है न दुर्घटना का कोई खौफ. माँ-बाप के लिए तो ये भी एक स्टेटस सिम्बल है कि उनकी औलाद गाड़ी चलाने लगी. जंक फ़ूड के ये दीवाने समुचित पौष्टिक आहार और खेल-कूद के अभाव में बेडोल, नाजुक और बीमार हो रहे हैं. कई बार तो माँए खुद बच्चों को जंक फ़ूड खिलाती रहती हैं कि कहीं खाना न बनाना पड़े . परिणाम यह है कि वो खुद तो एक टन की हैं बच्चे भी कोई कम नहीं हैं.
अब माँ-बाप के चेतने का समय है. जीवन की आपाधापी में हम अपने बच्चों को जो सिखा रहे हैं, क्या वह सही है? क्या उनके समझदार होने तक उन्हें जो मार्गदर्शन मिलना चाहिए वह हम उन्हें दे पा रहे हैं ? क्या उनके हिस्से का समय जो हमें उन्हें देना चाहिए, हम दे रहे है? अगर आज नहीं चेते तो कल किससे और किसकी शिकायत करेंगे ?

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