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नेताओं के बोलने के बारे में बहुत सुना था. बहुत से मृदुभाषी नेताओं की रिकार्डिंग को मैंने भी सुना था.बोलते थे तो लगता था शब्दों के मोती झर रहे हैं. श्रोता भी तन्मयता से उनकी बातों को सुनते थे. नेताओं की बात में वजन होता था, श्रोताओं में गजब का अनुशासन होता था. नेता अपनी अंतरात्मा से दृढ़ता,ईमानदारी और सच्चाई के साथ शब्दों को चुना करते थे. लोगों को उनकी बातों पर पूरा विश्वास होता था. बगैर लाउडस्पीकर के भी सुनाई पड़ता था, सब कुछ सुनाई पड़ता था. लेकिन आज अधिकतर नेताओं को सुनो तो वह माइक होने के बावजूद इतने जोर से चिल्लाते हैं कि कान के परदे फाड़कर बाहर निकाल दें. कई तो चिल्लाते-चिल्लाते रोने का नाटक भी बड़ी बखूबी करते हैं. मैंने वजह जानने की कोशिश की. अपने अल्प ज्ञान से जो मैं जान पाया कविता की शक्ल में प्रस्तुत है-
हाड़-तोड़ मेहनत, ढेरों प्रलोभन के बावजूद जब
जनसभाओं भीड़ नहीं देख पाता है, तो नेता चिल्लाता है.
झूठी,बनावटी और कोरी बातों को जब
श्रोता हजम नहीं कर पाता है, तो नेता चिल्लाता है.
अपने गोरख-धंधों, करतूतों के कारण जब
आरोपों में फंस जाता है, तो नेता चिल्लाता है.
समाजसेवा के इनके ढोंग को जब
मतदाता जान जाता है, तो नेता चिल्लाता है.
घूम-घूम कर ,मांग-मांग कर ,नाना प्रकार के स्वांग कर जब
वोट नहीं वो पाता है,तो नेता चिल्लाता है.
रुतबे और पैसों के खेल में , मनमाफिक खेल न होने पर जब
हाईकमान हड़काता है, तो नेता चिल्लाता है.
मुर्ग-मुसल्लम और दावतें खा-खाकर जब
उसका पेट जोर से गुड-गुड़ाता है, तो नेता चिल्लाता है.
उसकी जमी-जमाई खेती को जब
उसका ही कोई बन्धु चुग जाता है, तो नेता चिल्लाता है.
कितना जोर से चिल्लाता है? क्यों चिल्ला रहा है?
क्या चिल्ला रहा है? और कब तक चिल्लाएगा?
लो! हम तो सो गए.
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