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चुनाव और करिश्मा जनता का

मेरे बोल
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चुनावी बयार गजब का गुल खिला गई. कईयों का तम्बू उड़ा गई, कईयों की बत्ती बुझा गई. कई ओहदेदार,बारोजगार और घोडा-गाड़ी सवार केवल मच्छरमार बनकर रह गए. अब सोच रहे होंगे कि एक बार जीतने के बाद ये सीट इनकी बपौती क्यों नहीं हो जाती? दुनिया में कोई भी चीज अगर एक बार कोई कमा लेता है तो उस पर उसका मालिकाना हक हो जाता है. जमीन,दुकान,मकान,बिजनेस और नौकरी जो जिसने कमाया वो उसी का और उसके बाद उसकी औलाद का. ये कुर्सी के साथ ही ऐसा लफड़ा क्यों??? सोचो कितनी तकलीफ होती होगी जब ५ साल तक जिस चीज पर आपका अधिकार था, जिससे आपकी तूती बोल रही थी, वो सिर्फ एक झटके में ही आपसे छिन जाय. कैसा लगता होगा जब आपकी दुकान की सारी भीड़ एकाएक किसी दूसरी दुकान में पहुँचने लगे. ये तो जनता है कहीं और से राशन-पानी ले ही लेगी लेकिन इनकी इमरती का क्या हुआ? काश! ये चुनाव बार-बार न होते. गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले की धूल फांककर ,कितने पापड़ बेलकर , पावों में लोटकर वोट मांगे तो कुर्सी प्राप्त की . सब का सब मटियामेट. एक बात इनको कौन समझाए कि नौकरी वाले की नौकरी चलती रहे ,किसान की किसानी चलती रहे ,रिक्शे वाले का रिक्शा चलता रहे ,मजदूर को मजदूरी मिलती रहे, दुकानदारों की बिक्री होती रहे , शांति रहे , स्कूल-कालेज खुलते रहें फिर सरकार किसकी है इससे आम-जन को कोई फर्क नहीं पड़ता. इनकी सरकार तो बाबू और छोटे-मोटे अधिकारी ही होते हैं जो हमेशा वैसे ही बने रहते हैं चाहे किसी की सरकार हो.
अब दूसरी तरफ तो देखिए, जो अभी तक टुकुर-टुकुर कर देख रहे थे. बीच-बीच में चिल्ला रहे थे- हाय-हाय, भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार. ये हैं दुशासन हम देंगे सुशासन. जनता ने फिर कुर्सी उनकी तरफ सरका दी. यू.पी. में सपा ने बसपा,कांग्रेस और बी.जे.पी. सबको पानी पिला दिया. एक्सिट पोल बता तो रहे थे कि अखिलेश बाबू कुछ तो गुल खिलाओगे पर कसम से ऐसा तो किसी ने नहीं सोचा होगा, खुद आपने भी नहीं. चलो, जनता ने कुर्सी आपको दी है तो संभालो! कुर्सी तो संभालना ही और अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं को भी जरूर संभालना. जनता के वोट और पिताजी के आशीर्वाद ने गद्दी तो दिलवा दी पर एक तरफ तो चाचा परेशान हैं और दूसरी तरफ रामपुर वाले मामा. बहिन जी वाली गलती मत करना कि अपनी ही ……
उत्तराखंड का हाल जुदा है.कोई सोच भी नहीं सकता था की जरनल साहब की सीट पर भी घात लगेगी, लेकिन लग गई. जरनल साहब भले और ईमानदार आदमी हैं. लेकिन उनका हाल देखकर लगता है कि राजनीति में ईमानदारी के अलावा और भी बहुत कुछ सीखना पड़ता है, ताकि अपनों के आघात और विश्वासघात से बच सकें. जनता का कमाल देखो, एक दल को ३२ दे दी और दूसरे को ३१. दलीय तो दल-दल में और निर्दलीयों कि पौ-बारह. लो! खेलो कबड्डी पूरे पांच साल. थक जाओगे या एक दूसरे की टांग ज्यादा खींचोगे तो जल्दी ही दुबारा….
एक नेताजी बता रहे थे कि उनकी पार्टी सिद्धांतों के आधार पर समझौता करेगी. नेता, पार्टी और सिद्धांत? भली मजाक कर लेते हो यार! छोड़ो, अब जनता ने वोट दिया है तो कुछ तो अच्छे काम कर लो जिससे जनता आपको दुबारा याद करे. ध्यान रहे कि सत्ता के गलियारों में सत्ता परिवर्तन के बाद सिर्फ दलालों के नाम न बदलें. कुछ ऐसा काम करके दिखाओ जिससे प्रदेश की तरक्की हो और जनता को खुशहाली मिले. और अंत में –
नेता रे! काम तो कर लो, जनता के पास जाना है
न कुर्सी है न घोड़ा है, वहां पैदल हो जाना है.

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