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क्यों पटरी से उतरी रेल?

मेरे बोल
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कभी-कभी ये सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या बजट पेश करना सिर्फ एक संवैधानिक आवश्यकता ही बनकर रह गया है? या फिर यों कह लें कि केवल परंपरा निर्वाह और औपचारिकता के लिए ही ये सब कवादत होती है.रेल मंत्री जी ने रेल बजट पेश करना था,इसलिए पेश कर दिया. सत्ता पक्ष ने प्रस्तुत रेल बजट की तारीफ और विपक्ष ने आलोचना करनी ही थी सो अपने-अपने काम में व्यस्त हो गए. लगभग सभी न्यूज़ चैनलों में कुछ गुजरे ज़माने के घिसे-पिटे रेलवे अधिकारी, कभी सरकारी कृपा से रेलवे सलाहकार बने लोग और अपने गले कि खरांश निकालने को उत्सुक चुके हुए नेता जनता के कान फोड़ने को तैयारी करके आते हैं. कई तो ऐसे होते हैं जो सिर्फ टी.वी. पर शक्ल दिखाने के लिए ही आते हैं और बार-बार गर्दन ऊँची करके दिखाते हैं कि लो हम भी बैठे हुए हैं. इनके चर्चा के स्तर से ऐसा नहीं लगता है कि इन्होने कभी भी रेलों के उत्थान के बारे में सोचा होगा. ये तो बस एक-दूसरे की आलोचना करने आते हैं और अपनी भड़ास निकालकर चले जाते हैं .
पिछले ९-१० वर्षों से यात्री किराये में बढोत्तरी नहीं की गयी थी. गठबंधन सरकारों कि मजबूरी कह लीजिए कि रेल महकमा पिछले कई वर्षों से सरकार के सहयोगी क्षेत्रीय दलों के कब्जे में रहा है. अपनी राजनीति चमकाने के लिए रेल मंत्रियों ने रेल बजट को अपने-अपने राज्यों और क्षेत्रीय राजनीति का हितसाधक बनाकर रख दिया है. लोक-लुभावन बजट पेश करने के चक्कर में जहाँ सुधार की बहुत आवश्यकता थी, वहां पर भी सुधार नहीं किया गया. रेलवे ट्रैकों की दशा सुधारने, नई रेल-गाड़ी लाने, नई रेल लाइनों को बिछाने,रेलवे सुरक्षा तथा पिछड़े,दुर्गम और पर्वतीय इलाकों में रेल संचालन हेतु जिस संकल्प एवं प्रयासों की आवश्यकता थी वे ईमानदारी से हुए ही नहीं. नतीजा यह रहा है कि राजनीति को ढोते-ढोते रेल खुद जर्जर और असहाय हो गई है. मंहगाई से त्रस्त लोगों का यात्री किराये को बहुत बढ़ाने पर परेशान होना लाजिमी है.पर सोचिये! कि फ्री पास और बेटिकट सफ़र पर कड़ी लगाम क्यों नहीं लगती? रेलवे विभाग से सब्सिडी पर जहाँ बड़े-बड़े लोगों को भोजन उपलब्ध कराया जाता है, वह बंद क्यों नहीं होता? रेलवे की संपत्ति पर अनधिकृत कब्जे क्यों नहीं हटाये जाते? खाली पड़ी रेलवे की भूमि का सदुपयोग क्यों नहीं होता?सिर्फ अपने राजनीतिक आकाओं कि कृपा से बने ढेरों निठल्ले रेलवे सलाहकारों का वजन क्यों ढोया जाता है?
माना कि सब के मन माफिक बजट कोई नहीं बना सकता. पर प्रयास ही न हों और यों कहिए कि प्रयास करने ही नहीं दिया जाय तो इसमें कोई क्या कर लेगा. प्रस्तुत बजट पर संसद में सार्थक चर्चा हो, आवश्यकता के अनुसार संसोधन हों, जहाँ जरूरी हो कड़े कदम भी लिए जाएँ. यह भी तो राजनीति का एक बुरा चेहरा है कि कल जिस रेल मंत्री ने रेल बजट प्रस्तुत किया आज उसी की छुट्टी कि नौबत आ जाए.

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