Menu
blogid : 7851 postid : 81

भैया! कब तक रूठे रहोगे?

मेरे बोल
मेरे बोल
  • 25 Posts
  • 110 Comments

ये तो सब जानते हैं कि वर्तमान में राजनीति का सबसे बड़ा उद्द्देश्य पद,रुतबा और सुविधाएँ ही हैं.आज सचमुच उन्हें बेवकूफ समझा जाता है जो ये सोचते है कि राजनीति जन सेवा के लिए की जाती है.ओहदा-रुतबा पाते ही अधिकांश नेताओं की संपत्ति शताब्दी एक्सप्रेस की रफ़्तार से बढ़ती चली जाती है.ना कोई लफड़ा ना कोई डर. राजनीति में सक्रियता के कई फायदे होते हैं.भीड़ खड़ी करने के लिए तैयार कुछ समर्थक मिलते हैं.सफ़ेद कपड़ों के नीचे काले कारनामों को आसानी से ढका जा सकता है.सत्ता प्रतिष्ठानों तक पहुँच और अधिकारियों पर पकड़ के बूते उन पर आसानी से कोई हाथ नहीं डालता.हमारे संविधान निर्माताओं ने ये कभी नहीं सोचा होगा कि राजनीति कभी अपराधियों के लिए सब से सुरक्षित व्यवसाय बन जाएगी.इनके लिए बस एक बार बेवकूफ जनता कैसे ही वोट डालकर उनको चुनने की गलती कर दे फिर देखें ये इस गलती का कैसे सदुपयोग करते हैं.
अब दौर गठबंधन का है. गठों में बंधन यों ही नहीं होता. इसकी बड़ी कीमत वसूली जाती है. कीमत वसूलने के नए-नए तरीके ईजाद किये गए हैं.इन्हीं में से एक बड़ा पुराना पर अचूक तरीका है रूठना.यों रूठने-मनाने के कई स्वरूप और उनकी अपनी-अपनी मुश्किलें हैं. जैसे बीबी रूठती है तो खाना मुश्किल.बच्चा रूठता है तो मनाना मुश्किल.अधिकारी रूठता है तो समझाना मुश्किल.पर जो नेता तो रूठता है उसे तो बस पाना ही पाना है.बाकी सब तो थोड़े से मान-मनोवल,दुलार,माफी से मान जाते हैं पर नेता यों ही नहीं मानता.बाकी किसी वजह से और अचानक रूठते हैं पर नेता केवल मौका देखकर और पूरी तैयारी से ही रूठता है.पहले उसके द्वारा रूठने की कच्ची ख़बरें उड़ाई जाती हैं,फिर उसके समर्थक जुटने शुरू. नेता के रूठने की ऐंठन जुट रहे समर्थन के सापेक्ष होती है.नेता बढ़ते या घटते समर्थन को देखकर ही अपनी मांगों में परिवर्तन करता रहता है.कुछ पेशेवर मध्यस्थ खुद-बखुद सक्रिय हो जाते हैं और कुछ मौके की नजाकत को देखकर सक्रिय कर दिए जाते हैं.खाने-खिलाने,पीने-पिलाने,मध्यस्थों के इधर-उधर जाने के कई दौर चलते हैं.जितना खांटी-खुर्रांट नेता उतने उतने ज्यादा रूठने के दिन.जितनी बड़ी रूठन,उतनी बड़ी डील.
आज नेता किसी भी प्रान्त का हो, किसी उम्र का हो,किसी भी धर्म और जाति का हो मौका मिलते ही रूठ जाता है.इस पुनीत कार्य में रूठे नेता धर्म,जाति और पार्टी से भी परे जाकर एकता के सूत्र में बंध जाते हैं.इनकी यही खूबी देश की अनेकता में एकता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है.यही एकता इन्हें सब कुछ दिलाती है,कुर्सी,पैसा और सम्मान. कैसे रूठने-मनाने का दौर चलता है?कैसे समर्थकों की संख्या को बढ़ाने या तोड़ने के यत्न होते रहते हैं?कैसे परदे के पीछे मोलभाव होता है?आखिर कहीं पर जाकर समझौता हो ही जाता है.सत्ता की बोली में नेता तो जीत ही जाता है.हारती तो जनता है जो उन्हें ये सब करने का हक देती है.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply