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लोकतंत्र में हमारी संसद को सर्वोच्च अधिकार मिले हुए हैं. एक मजबूत,सुरक्षित और साधन संपन्न लोकतान्त्रिक राष्ट्र के लिए हमें अपनी संसद का सम्मान करना ही चाहिए.हमारी संसद में कई ऐसे महान सांसद रहे थे जिनका जीवन एक आदर्श था.लोग उनके जीवन एवं चरित्र से सीख लेकर अपने जीवन में अपनाना चाहते थे और गर्व से उनका नाम लेते थे.अब भी ऐसे कई सांसद सदन में हैं, जिन पर कोई दाग नहीं है. हम उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते हैं.ऐसे सांसद भले ही किसी भी दल में हों अपनी एक अलग पहचान रखते हैं. यह भी एक सच्चाई है कि ऐसे सांसदों की संख्या कम होती जा रही है.
हमारी चुनाव व्यवस्था में इतने सुराख़ हैं कि दागी लोग उसका फायदा उठकर चुनाव लड़ने योग्य हो जाते हैं. आज चुनाव जीतने के लिए कई हथकंडे अपनाए जाते हैं. अमूमन सभी दलों की यही स्थिति है कि ये जानते हुए भी कि वह व्यक्ति दागी है, उसे टिकट दिया जाता है. दागियों के वो मजे हैं कि एक दल छोड़ता है तो दूसरा हाथों-हाथ अपनाता है. दलों को सरकार बनाने के लिए संख्या बल जो जुटाना होता है. दागियों के पास चुनाव जीतने के लिए आवश्यक धन, जन और बल तीनों आसानी से उपलब्ध होता है. कोई कुछ भी कह ले हमारे यहाँ टिकट वितरण और चुनाव जीतने में धन,बाहुबल तथा जाति महत्वपूर्ण फैक्टर हैं.लोगों में उस जागरूकता का अभाव है जिससे वे किसी भी कीमत पर किसी दागी को न चुनने की हिम्मत कर सकें. कई बार तो ऐसी स्थिति भी आ जाती है कि विकल्पहीनता में दागियों में से ही किसी एक दागी को चुना जाना निश्चित होता है.कई ऐसे सांसद भी हैं जो पहले बेदाग थे पर सत्ता और ताकत के मिलते ही भ्रष्टाचार के दलदल में धंस गए. यही वजह है कि वर्तमान में कई सांसद दागी हैं जिन पर कई संगीन आरोप लगे हैं. इसे हमारे लोकतंत्र का दुर्भाग्य है और चुनावी व्यवस्था का दोष कहिए कि जिसको जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए था वो सांसद बन जाता है और विशेषाधिकार प्राप्त कर लेता है. इसी कारण जनमानस में संसद एवं सांसदों का वह सम्मान नहीं है जो पहले कभी था.
जब संविधान में सांसदों के विशेषाधिकार का प्राविधान किया जा रहा होगा तो किसी ने ये सपने में भी नहीं सोचा होगा की भविष्य में देश को कैसे सांसद मिलने वाले हैं.अपने कुकृत्यों के बावजूद दागी लोग भी संसद में विराजमान हो जाएँगे तथा ताकत,सत्ता और विशेषाधिकार का सुख भोगेंगे यह सोचकर तो इसका प्राविधान नहीं किया गया होगा.हमने कई बार सांसदों को संसद में भी अमर्यादित व्यव्हार करते हुए देखा है. उन्हें संसद में ही कई बार आपस में लड़ते हुए, कुर्सियां-माइक फैंकते हुए,बिल या कागज फाड़कर लहराते हुए, फूहड़ शब्दों का प्रयोग करते हुए और मसखरी करते हुए देखा है. ये कौन सा विशेषाधिकार है कि आप जो चाहें कर लें,कह लें, आपको कोई कुछ नहीं कहेगा? अब तक कितने दागी सांसदों को उनके दुष्कृत्यों के लिए विशेषाधिकार हनन का दोषी पाया गया है और सदन ने एकजुट होकर उसकी भर्त्सना करते हुए उसे कड़ी सजा सुनाई है?
आज कोई यह नहीं कह सकता है कि वह कभी किसी भी स्तर पर भ्रष्टाचार से परेशान नहीं रहा है.कई बार तो ऐसा लगता है की भ्रष्टाचार अब शिष्टाचार बनता जा रहा है. इस सच्चाई से किसी को इंकार नहीं होगा कि अन्ना एवं उनकी टीम ने भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक बड़ा जन आन्दोलन खड़ा किया और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता उनके समर्थन में जुटने लगी.यह भी सच है कि इस आन्दोलन को जो शुरुआती सफलता मिली थी वह कायम नहीं रही. इसमें कुछ दोष टीम अन्ना के कुछ सदस्यों की अति महत्वाकांक्षा और बडबोलेपन का भी है.उन्हें भी अपनी मर्यादा का भान होना चाहिए. वे अपने लक्ष्य से कुछ भटक गए और पार्टियों और नेताओं पर कटाक्ष करने में ज्यादा रूचि लेने लगे. इससे कुछ समय के लिए तो जनता का मनोरंजन किया जा सकता है पर एक बड़े आन्दोलन को धार देने के लिए यह बिल्कुल भी उचित नहीं.ये तो वैसा ही हो गया कि तुम्हारी नौटंकी का जबाब हम भी नौटंकी से ही देंगे.यही तो इस आन्दोलन के विरोधी भी चाहते थे कि आन्दोलन के लक्ष्य में भटकाव हो और इस जन आन्दोलन को असफल घोषित किया जा सके. जनता तमाशा नहीं समाधान चाहती है.
लोगों का अन्ना के साथ जुड़ना भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक स्वाभाविक जनाक्रोश है. सरकार और कुछ सांसदों ने इस जनाक्रोश को जिस रूप में समझा या जैसा बर्ताव किया वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था. क्या कुछ सांसदों के संसद और संसद के बाहर दिए गए बयानों से यह नहीं लग रहा था कि कहीं न कहीं वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक सशक्त लोकपाल से भयाक्रांत हैं? वे जिस तरह से अन्ना और उनकी टीम पर व्यक्तिगत आरोप लगा रहे थे, तब कोई विशेषाधिकार का हनन नहीं हो रहा था? एक सांसद खुलेआम मीडिया के सामने अन्ना पर सर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबे होने का आरोप लगा गए, तब क्या उनका विशेषाधिकार बोल रहा था? सभी जानते हैं कि अन्ना का सारा जीवन बेदाग और जन-सेवा को समर्पित रहा है. तब एक सांसद की ऐसी टिप्पणी पर संसद क्यों खामोश रही? क्यों किसी को विशेषाधिकार याद नहीं आया? यह कहाँ पर लिखा है कि जिसे विशेषाधिकार मिला है वह विशेषाधिकार हनन का दोषी नहीं हो सकता? यह दोहरे मापदंड क्यों बन गए?
विशेषाधिकार इसलिए होते हैं कि आप स्वयं नैतिक और चारित्रिक मानदंडों पर खरे हैं और कोई जानबूझकर आप पर गलत आरोप लगा रहा हो, या आपके कर्तव्य निर्वहन में कोई जानबूझकर व्यवधान उत्पन्न कर रहा हो तो उसे सजा मिलनी चाहिए. पर क्या सांसदों के किसी गलत कृत्य और आचरण को गलत कहना विशेषाधिकार हनन कहलाता है? किसी सांसद के गलत बयानों का विरोध करना विशेषाधिकार हनन कहलाता है? क्या जनभावना के अनुरूप कार्य न करने पर जनता का अपने सांसदों का विरोध करना विशेषाधिकार हनन कहलाता है?भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता को जब आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त अधिकार नहीं देना चाहते हैं तो क्या आप प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं कर रहे हैं? यदि ऐसा सच बोलना विशेषाधिकार हनन कहलाता है तो क्या ये विशेषाधिकार के नाम पर अत्याचार नहीं?
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